युद्ध के मैदान में खेले जा रहे खेल से कौन हो रहा मालामाल?

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संजीव पांडेय

शांति के नाम पर होने वाले युद्ध में बड़े कारपोरेशन मालामाल होते है।

अफगानियो को उनके हाल पर छोड अमेरिकी निकल गए। अफगानिस्तान में फिर गृह युद्ध की आशंका है। इस गृह युद्ध में रूसी, अमेरिकी और चीनी हथियारों का जमकर इस्तेमाल होगा। वैसे सैकड़ों सालों से कई आक्रमणों को झेलने वाला आम अफगानी युद्ध के आदि हो चुका है।

मध्य एशिया से भारत की तरफ आने वाले आक्रमणकारी अफगानिस्तान के रास्ते आते थे। 20 वीं सदी में अफगान रूसियों और अमेरिकियों के बीच युद्ध का केंद्र बना रहा। 21 वी सदी में अमेरिका और अलकायदा-तालिबान के बीच युद्ध का केंद्र बना रहा। पीसा आम अफगानी।

युद्धपर मजे रही दुनिया के ताकतवर मुल्क की डिफेंस इंडस्त्री। अरबों डालर का कारोबार अमेरिकी रक्षा उद्योग ने किया। इससे जुड़े अन्य सब्सिडरी कंपनियों ने किया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद वैश्विक स्तर पर रक्षा उद्योग ने कुछ इस तरह की व्यूह रचना की, जिससे दुनिया की एक बड़ी आबादी हिंसा का शिकार हो गई। अफगानिस्तान उन्हीं पीडितों में से एक है।

दरअसल अफगानिस्तान में अब फिर से अगर हिंसा शुरू होने की संभावना है। तो इसका प्रभाव आसपास के मुल्कों पर भी पड़ेगा। इसका सीधा लाभ अमेरिकी रक्षा उद्योग को होगा या रूसी रक्षा उद्योग को होगा।

चीन भी इस खेल में शामिल होना चाहता है। ये आसपास के देशों को हथियार बेचेंगे। दरअसल इस इलाके में अमेरिका का बड़ा खरीदार सऊदी अरब बना हुआ। तो ईऱान भी अपने बचाव के लिए रूसी हथियार की खरीद का आदेश दे रहा है। चीन की नजर भी इस इलाके के हथियार खरीदार देशों पर है, जो अफगानिस्तान में हिंसा बढ़ने के बाद हथियार खरीदेंगे।

इराक के बाद अब अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी हो गई। इस वापसी ने अमरिकी कार्रवाई की सफलता पर सवाल खड़ा किए है। वैश्विक स्तर कई जगह अमेरिकी सैन्य कार्रवाई ने अमेरिकी रक्षा बजट को आज 700 अरब डालर पार करवा दिया है।

ਅਫ਼ਗਾਨਿਸਤਾਨइधर अफगानिस्तान में 2 ट्रिलियन डालर खर्च करने के बाद भी शांति नहीं हुई। अंत में उसी की वापसी हई जिसके खिलाफ अमेरिकी फौजें लड़ रही थी। इराक में खरबों डालर खर्च किया गया। लेकिन इऱाक आज भी भारी हिंसा का शिकार है। न तो आतंक का खात्म हुआ, न हिंसा रूकी। फिर लाभ किसे मिला? निश्चित तौर पर अमेरिकी रक्षा उद्योग को इन लड़ाइयों का जोरदार लाभ मिला। अमेरिका के प्रभुत्व वाले तेल कंपनियों ने भी जमकर पैसे कमाए।

इन लड़ाइयों के कारण अमेरिकी डिफेंस इंडस्ट्री, इनसे जुड़े प्राइवेट कांट्रेक्टर और अमेरिकी सेना के अधिकारी खूब मालामाल हुए। तालिबान भी अमेरिकी रक्षा उद्योग की ही पैदाइश है। तालिबान के ज्यादातर लड़ाके किसी जमाने में सोवियत फौजों के विरोध में लड़ी थी। इन्हें सोवियत सेना के खिलाफ सीआईए और आईएसआई ने मिलकर प्रशिक्षण दिया था। और तो और ओसामा बिन लादेन भी रूस के खिलाफ पेशावर के हुई मोर्चेबंदी में सीआईए के साथ मिलकर मुजाहद्दीन तैयार करता था।

अमेरिका का दावा है कि उसने पूरी ल़ड़ाई लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए लड़ी है। इसी लोकतांत्रिक मूल्यों के नाम पर अंदर खाते अमेरिकी शासकों ने मिलिट्री नेशनलिज्म को भी बढाया। अमेरिकी करदाताओं के पैसे दुनिया भर में खर्च किए और इसका एक बडा हिस्सा अमेरिकी कारपोरेशनों को गया।

विदेशी धरती पर अमेरिकी सैन्य कार्रवाई का लाभ न तो अमेरिकी जनता को मिला, न ही उस देश की जनता को मिला, जहां सैन्य कार्रवाई की गई। हां अरबों डालर की कमाई अमेरिकी हथियार उद्योग ने की । अरबों डालर की कमाई अमेरिकी सैन्य बेसों पर काम हासिल करने वाले प्राइवेट कंपनियों/ कांट्रेक्टरों ने की।

इस कमाई का एक हिस्सा अमेरिकी सैन्य अधिकारियों को गया। एक हिस्सा रिपब्लिकन औऱ डेमोक्रेट पार्टी के सांसदों, नेताओं को गया, जो इनके लिए लॉबिंग करते रहे। मध्य-पूर्व में चल रही हिंसा का सीधा लाभ अमेरिकी रक्षा उद्योग को हुआ। इस इलाका के देशों का सबसे बड़ा सप्लायर अमेरिकी रक्षा उद्योग रहा।

2000 से 2020 तक इस इलाके में हुए हथियार सप्लाई में 45 प्रतिशत हिस्सेदारी अमेरिकी रक्षा उद्योग का था। जबकि रूसी रक्षा उद्योग की हिस्सेदारी 19 प्रतिशत थी। तीसरा बड़ा खिलाड़ी फ्रांस था जिसकी हिस्सेदारी 11 प्रतिशत थी। दिलचस्प बात यह है कि अमेरिकी रक्षा उद्योग को इतना लाभ इस संघर्ष से मिला है कि हथियारों के से जुड़े कारोबार में शामिल वैश्विक 100 बड़े डिफेंस फर्म में 42 डिफेंस फर्म अमेरिका के है।

इराक में सद्दाम हुसैन, लीबिया में कर्नल गद्दाफी जैसे लोग अमेरिकी कुटनीति के शिकार हो गए। अलकायदा चीफ ओसामा बिन लादेन को मार अमेरिका ने खूब वाहवाही पायी। लेकिन इन तमाम कार्रवाई और जंग के पीछे सीधा लाभ पाने वालों में अमेरिकी डिफेंस इडस्त्री और आयल इंडस्त्री रही। वार अगेंस्ट टेरर हो या दुनिया के कई मुल्कों मे अन्य कारणों से सीधे अमेरिकी हस्तक्षेप, इसका सीधा लाभ अमेरिकी रक्षा उद्योग को हुआ। पेंतागन के साथ जुड़े हुए प्राइवेट कांट्रेक्टर और कंपनियों का हुआ। इस लाभ का एक हिस्सा ये प्राइवेट कांट्रेक्टर और कंपनी अमेरिकी सेना के बड़े अधिकारियों और अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को देते रहे है।

वैसे तो अमेरिकी सैन्य बेसों का कामकाज, रखरखाव औऱ निर्माण का काम पहले अमेरिकी सैनिक खुद करते थे। लेकिन वियतनाम युद्ध में पहली बार सैन्य बेसों के निर्माण, रखरखाव में प्राइवेट कंपनी की एंट्री हो गई। ब्राउन एंड रूट कंपनी को दक्षिण वियनताम में आर्मी स्टैबलिशमेंट निर्माण का काम दिया गया। इसके बाद विदेशों में हुए तमाम अमेरिकी सैन्य कार्रवाई में कांट्रेक्टरों की चांदी रही। अकेले अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी सैन्य बेसों पर लिए गए ठेकों में अरबों डालर का खेल प्राइवेट कंपनियों/कांट्रेक्टरों ने किया।

दुनिया भर में मौजूद 2000 (फिलहाल 800) अमेरिकी सैन्य बेसों के निर्माण, रखरखाव और आपूर्ति का ठेका पेंटागन ने प्राइवेट कांट्रेक्टरों को दिए। प्राइवेट कांट्रेक्टरों के पास ही इन सैन्य बेसों पर सप्लाई का ठेका था। सैन्य बेसों की सुरक्षा की जिम्मेवारी भी इनके पास थी। वहीं हथियारों की खरीद का काम भी इन्हें ही दिया गया। इस्लामिक देशों की कंपनियों को भी अमेरिकी सैन्य बेसों पर कांट्रेक्ट मिला और उन्होंने अच्छे पैसे कमाए।

एक अध्धयन के मुताबिक 2002 से 2013 तक अमेरिका ने अपने मध्य-पूर्व के सैन्य बेसों पर कुल 385 अरब डालर खर्च किए। इसमें निर्माण,रखरखाव, आपूर्ति, प्रशिक्षण मे होने वाला खर्च शामिल है। इसमें इराक के सैन्य बेसों पर 89 अरब डालर, अफगानिस्तान के सैन्य बेसों पर 90 अरब डालर अमेरिका ने खर्च किया। वहीं कुवैत में स्थित अमेरिकी सैन्य बेसों पर 37 अरब डालर, यूएई में 10 अरब डालर का खर्च अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने किया।

इन खर्चों में घपले के आरोप भी लगे, कुछ आरोप साबित भी हो गए। प्राइवेट कांट्रेक्टरों ने कई सैन्य बेसों में कामकाज को लेकर फर्जी पेमेंट भी हासिल किया। इस खेल में अमेरिकी सैन्य अधिकारी, अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य भी शामिल थे। आरोप लगे कि अमेरिकी करदाताओं के पैसे के मिस्यूज हो रहा है।

अमेरिकी कांग्रेस ने इन आरोपों की जांच के लिए “कमिशन फॉर वार टाइम कांट्रेक्टिंग” बनाया। कमिशन ने जांच की। कमिशन ने अपनी जांच में 31 से 60 अरब डालर का फ्रॉड स्वीकार किया। दरअसल विदेशों में अमेरिकी सैन्य बेसों पर प्राइवेट कंपनियों को कांट्रेक्ट आवंटन मे कोई प्रतियोगी व्यवस्था नहीं थी। पेंटागन ने अपने चहेती कंपनियों को सैन्य बेसों पर काम आवंटित किया। अपनी मनमर्जी से अमेरिकी करदाताओं के पैसे को खर्च किया।

मध्यपूर्व में 2002 से 2013 तक अमेरिकी सैन्य बेसों पर काम हासिल करने के बाद कई प्राइवेट कंपनियां मालमाल हुई। मिसलेनियस फॉरेन कांट्रेक्टर, केबीआऱ इन्क, सुप्रीम ग्रुप, अगिलिटी लॉजिस्टिक, डाइन कार्प इंटरनेशनल, फ्लोर इंटरकांटिनेन्टल, आईटीटी, बीपी, बहरीन पेट्रोलियम कंपनी और आबू धाबी पेट्रोलियम कंपनी ने इराक और अफगानिस्तान युद्धमें जमकर पैसे कमाए।

इन कंपनियों को अमेरिकी रक्षा मंत्रालय, अमेरिकी सांसदों और सेना से जुड़े अधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। जिन कंपनियों को सबसे ज्यादा काम मिला, उसमें मिसलिनियस फॉरन कांट्रेक्टर शामिल था, जिसे 47 अरब डालर का कांट्रेक्ट मिला। जबकि केबीआर को 44 अरब डालर का कांट्रेक्ट मिला था। मुस्लिम देशों की दो बड़ी तेल कंपनियों को भी पेंटागन ने अच्छा कारोबार दिया। बहरीन पेट्रोलियम को 5 अरब डालर और आबू धाबी पेट्रोलियम को 4.5 अरब डालर कांट्रेक्ट मिला।

अब तो यह समझ में आना चाहिए कि शांति के नाम पर होने वाले युद्ध में बड़े कारपोरेशन मालामाल होते है।

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संजीव पांडेय

संजीव पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और अंतराष्ट्रीय मुद्दों पर पकड़ रखने वाले लेखक हैं।

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