मौलाना अब्दुल सलाम जईफ तालिबान-1 में पाकिस्तान में अफगानिस्तान के राजदूत था। मुल्ला उमर के खास सहयोगी जईफ ने अपनी किताब “माई लाइफ विद द तालिबान” में लिखा है कि पाकिस्तान भरोसे का दोस्त नहीं है। पाकिस्तानी स्टैबलिशमेंट के लोग मक्कार है, धोखेबाज है। ये दो जीभ वाले है और दो तरह की बातें करते है।
मुल्ला उमर के खास सहयोगी जईफ की पाकिस्तानी स्टैबलिशमेंट के प्रति यही राय अफगान तालिबान और पाकिस्तान आर्मी स्टैबलिशमेंट की नजीदिकियों और उनके बीच के कंट्रॉडिक्शन समझने के लिए काफी है। हालांकि मीडिया का दावा है कि अब काबुल में तालिबान के कब्जे के बाद अफगानिस्तान में पाकिस्तान का स्ट्रैटजिक डेफ्थ बढ गया है। लेकिन इस स्ट्रैटजिक डेफ्थ के कंट्रॉडिक्शन को समझना जरूरी है।
क्या खुद पाकिस्तानी आर्मी स्टैबलिशमेंट अफगान तालिबान पर पूरा भरोसा कर रहा है ? बिल्कुल नहीं। पश्तून नेशनलिज्म पाकिस्तान के लिए हमेशा चुनौती रहा है, आगे भी रहेगा। पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा “डूरंड लाइन” को पश्तून नेशनलिस्ट स्वीकार नहीं करते। डूरंड लाइन को अफगान तालिबान भी स्वीकार नहीं करता है। खुलकर अफगान तालिबान ने कभी भी डूरंड लाइन के समर्थन में पाकिस्तानी स्टैबलिशमेंट के दबाव के बावजूद ब्यान नहीं दिया। उधर पाकिस्तान के लिए इस समय एक बड़ी बडी चुनौती “तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान” है, जो ग्रेटर पश्तून स्टेट का समर्थक है।
पाकिस्तान काबुल में नई सरकार को बनवाने में सक्रिय है। काबुल में पाकिस्तान की सक्रियता बढ गई है, भारत आउट हो गया है। इससे पहले काबुल में पाकिस्तान कमजोर था, भारत मजबूत था। इसमें कोई शक नहीं कि अफगान तालिबान के अंदर पाकिस्तानी सैन्य स्टैब्लिशमेंट की घुसपैठ है। लेकिन अफगान तालिबान की अपनी मजबूरी है। उन्हें पाकिस्तान का समर्थन चाहिए।
वहीं पाकिस्तानी सैन्य स्तैबलिशमेंट की अपनी मजबूरी है। उन्हें पश्तून नेशनलिज्म को रोकने के लिए अफगान तालिबान का इस्लामिक चेहरा चाहिए। अफगान तालिबान की एक और मजबूरी है।
अमेरिकी हमले के बाद अफगान तालिबान के बड़े कमांडर और उनके परिवारों ने पाकिस्तान में शेल्टर लिया। पाकिस्तान ने इन्हें शेल्टर दिया। पाकिस्तान की मंशा साफ रही है। वे डूरंड लाइन को लेकर अफगानिस्तानी जनता की सोच को अफगान तालिबान के माध्यम से बदलना चाहते है।
पाकिस्तानी स्टैबलिशमेंट ने अफगान तालिबान के माध्यम से ग्रेटर पश्तून स्टेट और पश्तून नेशनलिज्म के खिलाफ इस्लामिक मूवमेंट को खड़ा करने की कोशिश की।
पाकिस्तान में शरणार्थी जीवन जीने वाले, क्वेटा शूरा के तालिबान कमांडर आईएसआई के दबाव में बहुत कुछ वो करते रहे है, जिसे वे दिल से नहीं चाहते है। अंदर खाते अफगान तालिबान भी पाकिस्तान प्रभाव से मुक्त होकर काम करना चाहता है। यही नहीं पश्तून नेशनलिज्म के प्रति अफगान तालिबान की भी सहानभूति रही है।
मुल्ला बरादर ने पाकिस्तानी प्रभाव से निकलने की कोशिश की। पाकिस्तान ने उसे गिरफ्तार किया। अब तालिबान की नई सरकार में मुल्ला बरादर की अहम भूमिका होगी। अगर शासन के लिए कोई काउंसिल बनेगी तो बरादर उसका चीफ हो सकता है। बरादर उन कमांडरों में शामिल है जो पाकिस्तान का हस्तक्षेप अफगान मामलों में पसंद नहीं करता है।
अफगान तालिबान पाकिस्तानी स्टैबलिशमेंट के दोहरे चेहरे को नपासंद करता है। मुल्ला बरादर को पाकिस्तान ने गिरफ्तार किया। इससे पहले इस्लामाबाद में तालिबान-1 में राजदूत के तौर पर तैनात अब्दुल सलाम जईफ को परवेज मुशर्रफ ने गिरफ्तार करवाया। उसे अमेरिकी सैनिकों को सौंप दिया। जईफ कई साल तक क्यूबा स्थित अमेरिकी डिटेंशन सेंटर में रहा। तो पाकिस्तानी सैन्य स्टैबलिशमेंट के प्रति अफगान तालिबान की शंका के वाजिब कारण है।
लेकिन इधर पाकिस्तान की चिंता तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान है। 2005 के बाद पाकिस्तानी पश्तूनों के इस आतंकी गुट ने पाकिस्तानी सेना पर सैकड़ों आत्मघाती हमले किए। सैक़ड़ों पाकिस्तानी सैनिक इस आतंकी गुट के आत्मघाती हमले में मारे गए है।
रावलपिंडी स्थित सेना के हेडक्वार्टर पर पाकिस्तानी तालिबान ने हमला किया। 2014 में पेशावर स्थित आर्मी पब्लिक स्कूल पर पाकिस्तानी तालिबान ने हमला किया, जिसमें 132 मासूम बच्चों की मौत हो गई।
पाकिस्तानी तालिबान आज भी खैबर पख्तूनखवा में काफी मजबूत है। पाकिस्तानी तालिबान को लॉजिस्टिक स्पोर्ट अफगान तालिबान के प्रभाव वाले पूर्वी अफगानिस्तान के राज्यों से मिलता है। पाकिस्तानी तालिबान के कमांडर और अफगान तालिबान के कमांडरों के बीच अच्छे संबंध है।
पाकिस्तान के कई मदरसों के कटटर मौलाना भी पाकिस्तानी तालिबान का सपोर्ट करते है। देवबंदी मदरसों के मौलाना शुरू से ही इनके साथ रहे है। क्योंकि इन आतंकी गुटों में शामिल लड़के औऱ कमांडरों की पढाई देवबंदी मदरसों से हुई है। अकोरा खटक का “जामिया हक्कानिया” औऱ कराची का “जामिया बिनौरिया” प्रमुख है। इन्हीं मदरसों से अफगान तालिबान के लड़कों और कमांडरों की भी पढाई हुई है।
कुछ समय पहले पाकिस्तानी सेना अध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा ने एक प्रजेंटेशन पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान को दिया था। जनरल बाजवा ने अपने प्रजेंटेशन में साफ तौर पर कहा था कि अफगान तालिबान और पाकिस्तानी तालिबान एक ही सिक्के के दो पहलू है। पाकिस्तानी तालिबान अंदर खाते ग्रेटर पश्तून स्टेट की बात करता है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा डूरंड लाइन को लेकर उसकी राय लगभग वही जो अफगानी पश्तूनों की है।
दरअसल पाकिस्तानी सैन्य स्टैबलिशमेंट की चिंता पाकिस्तानी तालिबान के साथ-साथ “पश्तून तहफूज मूवमेंट” (पीटीएम) भी है। खैबर पख्तूनखवा और 7 ट्राइबल एजेंसियों में पश्तूनों के साथ होने वाली पाकिस्तानी सैन्य ज्यादतियों के मुद्दे को लेकर पश्तून तहफूज मूवमेंट सेना के खिलाफ पाकिस्तान में जोरदार आवाज बन गया है।
पाकिस्तानी सेना इस मूवमेंट को उस पश्तून नेशनलिज्म से जोड कर देख रही है, जो डूरंड लाइन को नहीं मानता है। ग्रेटर स्वतंत्र पश्तून स्टेट की बात करता है। सेना को शक है कि इस मूवमेंट से पाकिस्तानी तालिबान की सहानभूति है।
पाकिस्तान की चिंता खैबर पख्तूनखवा के पश्तून है, जो अफगान तालिबान के वहां सत्ता मे आने के बाद अपनी आवाज और बुलंद कर सकते है। पश्तून नेशनलिज्म को सबसे बड़ा खतरा पाकिस्तानी सेना में मौजूद पंजाबी जनरल मानते रहे है। क्योंकि पश्तून चाहे अफगानी हो या पाकिस्तानी, पंजाबी वर्चस्व को स्वीकार नहीं करता।
दरअसल तालिबान ने अफगानिस्तान के जेलों में बंद कई सैकड़ों आतंकियों को रिहा कर दिया है। इसमें उइगुर और उजबेक आतंकी तो शामिल है ही, लेकिन पाकिस्तान की परेशानी इसलिए बढ़ गई है कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के कई आतंकियों भी जेल से रिहा हो गए है। इसमें पाकिस्तानी तालिबान से जुड़ा आतंकी मौलाना फकीर अहमद शामिल है। फकीर अहमद पाकिस्तानी स्टैबलिशमेंट के लिए बड़ी चुनौती है।
दरअसल पाकिस्तानी तालिबान के बैतुल्लाह महसूद, हकीमुल्लाह महसूद को तो पाकिस्तान अमेरिकी ड्रोने से खत्म करवाने में सफल रहा। लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तानी तालिबान पाकिस्तानी सीमावर्ती इलाके में मजबूत रहा। पाकिस्तानी तालिबान के आतंकियों पर कंट्रोल रखने के लिए पाकिस्तान ने अफगान तालिबान के अंदर सक्रिय हक्कानी नेटवर्क को मजबूत रखा, ताकि पाकिस्तान का बचाव होता रहे।
दरअसल पाकिस्तान की चिंता अफगान तालिबान की बढ़ती समझ को लेकर है। अफगान तालिबान के नेताओं को जियोपॉलिटिक्स की समझ मजबूत हुई है। किसी जमाने में कंप्यूटर, मोबाइल, सोशल मीडिया का विरोध करने वाले तालिबान कमांडर अब इसका प्रयोग कर रहे है। इस कारण वे बदलती दुनिया से वाकिफ है। उन्हें जियो-पॉलिटिक्स औऱ जियो-इक्नॉमिक्स समझ में आ रही है। पाकिस्तान के लिए यही परेशानी है।
आखिर अफगान तालिबान ने अपने बदलती सोच के साथ ईऱान से नजदीकी बढायी। 1998 में अफगानिस्तान के मजार-ए-शरीफ में 8 ईरानी डिप्लोमेटों की हत्या करने वाला तालिबान आज शिया ईऱान से अच्छे संबंध विकसित कर चुका है। ईऱानी डिप्लोमेटों की हत्या की साजिश में पीछे से सऊदी अरब और पाकिस्तान भी शामिल थे। किसी जमाने में यही तालिबान ईऱान के खिलाफ सऊदी अरब का प्रमुख हथियार था। तालिबान ने अब रणनीति बदली है।
तालिबान ने सऊदी अरब से दूरी बनायी है। उन्हें अब सऊदी अरब ने वित्तीय मदद भी नहीं मिल रही है। क्योंकि ईऱान से तालिबान की बढती नजदीकी को सऊदी अरब नापसंद करता है। यही नहीं अफगान तालिबान सऊदी अरब के बहावी इस्लाम के प्रभाव से निकलने की कोशिश कर रहा है।
पाकिस्तान की एक और चिंता अफगान रिफ्यूजी है। तालिबान-2 में अगर तालिबान-1 जैसा हाल हुआ, तो पाकिस्तान के सामने बड़ी समस्या खड़ी होगी। पाकिस्तान में अफगानिस्तानी रिफ्यूजियों की संख्या बढेगी। तालिबान के पुराने शासन की याद से आम अफगानी डरे हुए है। डरे हुए अफगानिस्तानी पड़ोसी मुल्कों की तरफ रूख करेंगे। इसमें ईऱान और पाकिस्तान प्रमुख मुल्क है।
इन दोनों मुल्कों में पिछले चालीस साल से लाखों अफगान रिफ्यूजी बैठे है। आखिर कोई मुल्क प़ड़ोसी देश की आबादी का भार कितनी देर तक उठाएगा ? ईरान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों की इकनॉमी संकट में है। पाकिस्तान को यह पता है कि चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर सफल तभी होगा जब पाकिस्तान के पश्चिमी और पूर्वी सीमा पर शांति होगी।
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— Team PT
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